मंगलवार, 4 अगस्त 2009

यात्रा की चित्रकथा

चित्र कथा --कारू कस्बे के निकट सिंधु नदी के तट पर खड़ा लेखक। ढलते सूरज की कमजोर किरणें पूरे वातावरण को रहस्यमयी बना देती हैं।


चित्र कथा--स्कार्पियों गाड़ियों का काफिला जिसमें हम भी सवार थे।


चित्र कथा--लद्दाख के रहस्यमय पहाड़ जो किसी को भी बरबस आकर्षित कर लेते हैं।


चित्र कथा--लेह स्थित होटल नामग्याल पैलेस, जहां छह दिन ठहरी थी हमारी टीम।

मेरी लद्दाख यात्रा-3

(परंपरागत वेशभूषा में एक लद्दाखी महिला )

जो एक बात हमने दुनिया की छत पर उतरते ही सबसे पहले महसूस की वह तो मैं बताना ही भूल गया। शायद दिल्ली की गर्मी से इस शीतल व शुद्ध बयार वाले मौसम ने हमें अलग से इस ओर ध्यान नहीं जाने दिया। कुछ देर बाद ऐसा लगा जैसे पूरे वातावरण में एक खास तरह की खुशबू है। यह खुशबू किसी फूल की नहीं बल्कि वहां की मिट्टी से आ रही थी। यदि आप कभी गांव में रहे हों तो आप समझ सकते हैं कि जब तपती गरमी के बाद पहली बारिश होती है तो खेतों की मिट्टी से जैसी सोंधी-सोंधी महक आती है कुछ वैसी ही महक लद्दाख की फिजा में भी महसूस हो रही थी। एक बार जब इस खुशबू की ओर हमारा ध्यान चला गया तो पूरे समय हमें दूसरे लोगों से भी इसकी पुष्टि करते रहे कि क्या उन्हें भी वातावरण में किसी खास महक का अहसास हो रहा है। फिलहाल एअरपोर्ट के बाहर दिल्ली से पहुंची टीम के लिए आई टैक्सियों में हम सवार हो गए। यहां टैक्सियों में सर्वाधिक स्कार्पियो गाडियां ही दिख रही थीं। हम लोगों के लिए बी पांच स्कार्पियों गाड़ियों का ही इंतजाम किया गया था। लेह शहर के शायद सबसे निचले स्थान पर एअरपोर्ट है। हम वहां से निकलने के पांच मिनट के अंदर ही एक होटल परिसर में पहुंच गए। होटल की बिल्डिंग पर बड़े अक्षरों में लिखा था, होटल नामग्याल पैलेस। बाद में किसी ने बताया कि नामग्याल यहां के किसी पुराने शासक का नाम था जिसने इस शहर को कभी ईशा पूर्व बसाया था। होटल की लाबी में पहुंचने पर पता चला कि Text-100 टीम के कुछ सदस्य व कुछ पत्रकार हम लोगों से एक दिन पहले ही पहुंच चुके थे। अभी सुबह के नौ ही बजे थे। हमें यहां बताया गया कि हम वहां होटल के डायनिंग हाल में नाश्ता कर लें। चाय नाश्ते के बीच ही हमें हमारे कमरे बता दिए गए। कुछ लोगों को पास के ही दूसरे होटल में जाना पड़ा क्योंकि वहां कमरे कम पड़ रहे थे। Text-100 टीम के एकमात्र मेल मेम्बर अमित वर्मा ने बताया कि मुझे कमरा संख्या १०२ में जाना है। जहां एक दिन पहले ही पहुंच चुके दूरदर्शन के रिपोर्टर सुहेल ठहरे हुए हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि हम कोशिश करें कि शाम तक होटल के कमरे में ही आराम करें। क्योंकि आक्सीजन की कमी के चलते आज हमें ज्यादा चलना फिरना नहीं चाहिए। यद्यपि हमें कोई खास परेशानी नहीं हो रही थी लेकिन शरीर में सुस्ती सी छाना शुरु हो गई थी। बार-बार लोग एक दूसरे से तबीयत पूछ रहे थे। कुछ लोग दवाएं आदि भी प्रिकाशन के रुप में खा रहे थे। मैं चाय नाश्ता करने के बाद अपने कमरे में जाने के लिए जब पहली मंजिल की सीढ़ियां चढ़ रहा था तो हमें लगा जैसे हम भारी बोझा उठाये चल रहे हों। लगभग बीस स्टेप चलने के बाद सांस फूलने लगी। इसके साथ ही मुझे प्लेन में सौरभ गुप्ता की कही बात याद आने लगी। मैं सीधा कमरे में गया। वहां मेरे कमरे में पहले से ठहरे सुहेल कहीं गए थे। मैं कपड़े बदले और दिन की गुलाबी ठंड़ के बीच रजाई में घुसकर लेट गया। नींद कब आई पता ही नहीं चला। अचानक नींद खुली तो होटल की घंटी बज रही थी। फोन उठाया तो Text-100 टीम की ओर से मेरा पहले स्वास्थ्य पूछा गया। मुझे लगा कि ठीक ही हूं। फिर कहा गया कि मैं नीचे डायनिंग हाल में आकर लंच कर लूं। मैं थोड़ी देर में विस्तर से उठा तो लगा कि कमजोरी सी लग रही है। फिर मे मैं नीचे दूसरे साथियों का हाल जानने की गरज से नीचे पहुंच गया। पता चला कि कुछ लोग तो बीमार से हो गए हैं। कुछ लोग कमजोरी महसूस कर रहे थे लेकिन दवा के बूते वे अभी तक ठीक-ठाक थे। लंच कर मैं Text-100 की टीम से वहीं लाबी में बैठकर अगले दिन के प्रोग्राम पर बात करने लगा। सबसे पहले मैंने यह जानने की कोशिश की कि वह जगह कहां जहां पर कल हम लोगों को जाना है । वहांक्या प्रोग्राम है। हमें बताया गया कि सुबह सात साढ़े सात बजे हम लोगों को होटल छोड़ देना है। हमें हेमिस गोम्पा जाना होगा। वहीं पर हिज हाइनेस (HH) ग्यालवांग द्रुक्पा की चार सौ किमी. लंबी पदयात्रा का समापन होगा। हमें उसमें शिरकत करना है। आगे का कार्यक्रम हमें वहीं पता चलेगा।
फिर कब शाम हुई, कब व कैसे रात का खाना खाया पता ही नहीं चला। क्योंकि शाम तक बदले माहौल का पूरा असर हम पर छाने लगा था। शरीर शिथिल से शिथिलतर होने लगा था। इस बीच हमने दवा की एक गोली भी खायी। देर रात हमारे रूम पार्टनर कब आए यह भी मुझे ठीक से याद नहीं। अगले दिन सुबह छह बजे फिर टेलीफोन कर हमें जगा दिया गया और कहा गया कि तैयार होकर नीचे आ जाएं। नाश्ता के बाद हमें हेमिस के लिए रवाना होना था। वैसे भी सुबह उठने पर लगा कि तबीयत भी कुछ बेहतर है। हमारी टीम चाय नाश्ता के बाद लगभग आठ बजे होटल से हेमिस के लिए निकल पड़ी। हमारी नजर दुनिया में सबसे ऊंचाई पर बसे इस शहर की खूबियों को देखने के लिए इधर-उधर भटकने लगी। अब तक जो हमने महसूस किया वहां पर हमें कहीं पक्षी नहीं दिखायी दिए। इसके अलावा वहां पर आबादी वाले इलाके में वनस्पतियों की भी कुल दो ही प्रजातियां दिख रही थीं। जिनमें से एक पापुलर का पेड़ तथा दूसरा एक झाड़ी नुमा पेड ही बहुतायत से लोगों ने घरों व सड़क के किनारे लगा रखे थे। लेह से हेमिस की दूरी लगभग पैंतालिस किमी है। जिस मार्ग से हम जा रहे थे लोगों ने बताया कि वह मनाली जाने वाली सड़क है। शहर से पांच छह किमी चलने के बाद एक तरह पहाड़ियां तो दूसरी तरफ सिंधु नदी बहती है। बीच बीच में पहाड़ों तथा सड़क के बीच लंबा मैदान भी दिखता है किंतु पूरी तरह से बंजर। नदीं के पार दूसरी ओर भी बड़े मैदान हैं लेकिन वे भी बंजर। इन मैदानों में एक भी पेड़ पौधे नहीं है। हां सड़क व सिंधु नदी के बीच की जमीन पर कई जगह उपजाऊ जमीन है। जिस पर लोगों ने न केवल फसले उगा रखी थी बल्कि वहां बड़ी संख्या में पेड़ भी दिख रहे थे। जिनमें ज्यादातर पापुलर के ही पेड़ थे। जुलाई के मौसम में यहां गेंहूं के हरे भरे खेत व फूली हुई सरसो देखना अदभुत लग रहा था। रास्ते में ड्राइवर ने पहाड़ पर बाई तरफ चोटी पर बने एक भवन की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह शै पैलेस है। सड़क से दो सौ फिट से भी अधिक ऊंचाई पर उक्त पैलेस को देखकर मन में कौतुहल उठा लेकिन हमारी गाड़ी आगे बढ़ती गई। सड़क के किनारे कुछ गांव थे। गांव क्या थे एक या दो कमरों के कच्चे मकानुमा भवनों को देखकर अजीब सा लगता था। वास्तव में वे स्थानीय तौर पर बनाई गई ऐसी कच्ची ईंटों के मकान थे जो बारिश से सुरक्षित थे। जो लोग थोड़ा संपन्न थे उनके घरों के बाहर दीवार पर लकड़ी की नक्काशी भी दिख जाती थी। लगभग पौन घंटे बाद एक छोटी सी बाजार पहुंचकर हमारी गाड़ी धीमी होने लगी। हमें बताया गया कि उस जगह का नाम कारू है। यहां से हमें सिंधु नदी पार करके उसके बांए किनारे पर जाना था। कारू सिंधु नदी के बिल्कुल दाहिने किनारे पर है जबकि ठीक उसके सामने वाएं किनारे पर लगभग दो किमी या इससे भी अधिक दूरी पर सिंधु नदी के बायी ओर पहाड़ियों के पीछे हेमिस गोम्पा है। हमारा काफिला सिंधु नदी पार करते ही थोड़ी उंचाई पर सड़क के किनारे रुक गया। पता चला कि सामने से वह यात्रा आ रही जिसके समापन कार्यक्रम में हमें आज (1जुलाई 2009) शामिल होना था।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

हवाई नजारा जो मैने देखा

इस वीडियो को क्लिक कर चले हमारे साथ हवाई यात्रा पर आप।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

मेरी लद्दाख यात्रा-2

पालम एअरपोर्ट पर मैं एयर डेक्कन के उस विमान को बड़ी हसरत भरी नजर से देख रहा था। जैसे ही बस से उतरे मेरे साथ के लोग विमान की ओर बढ़े मैं भी अपना वैग लेकर उनके पीछे चल दिया। विमान के द्वार से अंदर घुसते समय लाल रंग के पश्चिमी पहनावे वाली दो लड़कियों ने हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए हमारा वेलकम किया। मेरे लिए यह सब नया अनुभव था। मैने भी उन्हें धन्यवाद कहा लेकिन मैं थोड़ा आगे आकर पीछे मुड़ा ताकि उन बालाओं के स्वागत पर दूसरे साथियों के प्रतिक्रिया को देख सकूं। उनमें से कई केवल उनके अभिवादन पर केवल सिर हिला रहे थे जबकि कुछ को तो देखकर लगा जैसे वे प्रयासपूर्वक उन्हें अनदेखा कर रहे थे। मैं थोड़ा आगे बढ़ा। कुछ लोग पहले से जहाज के अंदर पहुंचकर अपनी सीट पर बैठ गए थे। मुझे नहीं मालुम था कि मुझे किस सीट पर बैठना है। किंग फिशर के टिकट पर कई तरह के नम्बर थे लेकिन उनमें से कौन सा सीट नम्बर है हमें यह नहीं मालुम था। सामने से आ रही एक अन्य एअर होस्ट से मैने अपने बैठने की जगह पूंछी साथ ही फटा हुआ टिकट का कूपन उसकी ओर बढ़ा दिया। लड़की ने पूरी तत्परता व प्रोफेशन तरीके से मुझे मेरी सीट पर पहुंचा दिया। जहाज के अंदर यात्रियों के लिए लगभग सवा सौ सीट थी मेरी सीट जहा के मध्य से थोड़ा पीछे दाहिनी ओर विंडो के साथ थी। मैं जाकर अपनी सीट पर बैठ गया। अभी मैं जहाज के अंदर का जायजा ही ले रहा था कि एक और सज्जन आकर मेरी बगल में बैठ गए। थोड़ी देर हम दोनों चुप रहे लेकिन मुझे लगा कि वे हमारे साथ Text-100 की ही टीम में थे। मैने उनसे कंफर्म किया तो उन्होंने सहमति में सिर हिला दिया। फिर मेरा उनसे परिचय हुआ। मेरे सहयात्री थे सौरभ गुप्ता। सौरभ हिंदुस्तान टाइम्स, चंडीगढ़ से इस यात्रा में शामिल होने के लिए आए थे। सौरभ वैसे तो कम बोलने वाले इंसान लगे लेकिन लद्दाख यात्रा को लेकर वे भी मेरी तरह उत्सुक नजर आए। हम लोगों के जहाज में सवार होने के बाद बीस मिनट तक जहा रुका रहा। शायद कोई पैसेंजर पीछे छूट गया था। इस बीच सौरभ ने बताया कि हम लोगों को लद्दाख पहुंचते ही होटल में जाकर छह सात घंटे आराम करना होगा। मैने सोचा कि एक घंटे की फ्लाइट के बाद छह साथ घंटे क्यों आराम करना होगा। जब मै प्रश्नवाचक निगाहों से सौरभ की ओर देखा तो वे बोले कि लद्दाख में आक्सीजन यहां की तुलना में काफी कम है। इसिलए वहां हमें चक्कर आदि आने लगेगा। वहां के माहौल से तालमेल बिठाने में एक दिन निकल जाएगा। मैं मन ही मन उन पर हंसा कि क्या फालतू तर्क दे रहे हैं। लेकिन सौरभ यह सारी हिदायतें मुझे काफी कांफीडेंस से दे रहे थे। कि वहां क्या-क्या परेशानी हो सकती थी लेकिन हम तो जहाज में पहली बार उड़कर दुनिया की छत पर पहुंचने के सपने में ऐसे खोए थे कि उनकी बातों को मन ही मन हंसी में उडा दिया।
तीस जुलाई सुबह सवा सात बजे हमारा विमान रन वे की ओर चला। विमान यद्यपि अभी जमीन पर ही चल रहा था लेकिन हम सातवें आसमान पर थे। खिड़की के बाहर की दुनिया कुछ अजीब लग रही थी। जिन रास्तों पर विमान रन वे की ओर जा रहा था उन्ही पर जीप, बस व ट्राली लगे ट्रैक्टर भी इधर उधर दौड़ते नजर आ रहे थे। थोड़ी देर में हम टर्मिनल वन-डी से दूर रन-वे के करीब थे। इसी बीच अनाउंस होता है कि सभी यात्री ध्यान दें। जहाज के बीच के रास्ते में समान दूरी पर तीन एअर होस्टेज खड़ी थीं। वे एनाउंस मेंट के जरिए सेफ्टी व अन्य जानकारियों को प्रदर्शन कर साथ-साथ बताती जा रही थीं। जैसे कि यात्री कैसे सीट बेल्ट बांधे या खोलें। इस घोषणा के साथ ही एअर होस्टेज डमी सीट बेल्ट को खोलकर बांधने की तरकीब को दिखाती। वे यह भी बताती कि ऊंचाई पर जहाज में आक्सीन माक्स कैसे लगाएं अथवा इमरजेंसी गेट तक कैसे पहुंचे आदि। हमें यह किसी नाटक के दृश्य जैसा लग रहा था, जिसमें मंच पर एक्टिंग करने वाला पात्र केवल मुंह चलाता जबकि संवाद पर्दे के पीछे से बोला जा रहा होता है।
अचानक जहाज रुक गया। खिड़की से बाहर देखा तो दूसरा जहाज तेजी से रन-वे पर भाग रहा था और देखते ही देखते आसमान में उड़ गया। हम लोग भी सीट बेल्ट बांधकर उड़ने का इंतजार कर रहे थे। बीस पच्चीस सेकंड में ही हमारा जहाज भी रन वे पर दौड़ने लगा। अचानक लगा कि जहाज में दो इंजन चालू हो गए। शोर बढ़ गया और जहाज की दौड़ने की गति भी बढ़ गई। हम दम साधे खिड़की से बाहर का नजारा लेते रहे। हल्का सा एक झटका लगा और हम जमीन से ऊपर उड़ गए। इस बीच जहाज के डैने थोड़े पीछे की ओर झुका दिए गए थे। हम जमीन से ऊपर उठते जा रहे थे। नीचे के घर व खेत छोटे होने लगे थे। खिड़की पर जमीं बारिश की बूंदे फुर्र हो चुकी थीं। हमारा जहाज हल्के से घूम रहा था दिल्ली का एक विहंगम दृश्य सामने था।

लेकिन यह नजारा देर तक न रहा। अचानक लगा हम बादलों के बीच में हैं। जहाज के चारो ओर बादल और सिर्फ बादल दिखायी दे रहे थे। नीचे का दृश्य दिखना बंद हो गया। एक मिनट तक यह स्थिति बनी रही और उसके बाद हम बादलों के पार आसमान में थे। हां इस बीच दो बार ऐसा लगा जैसे कि जहाज कुछ छड़ के लिए नीचे गिर रहा हो। उस पल लगा कि पेट की अंतड़िया ऊपर सरक रही हैं। एक हल्की झुरझुरी सी हुई और फिर थोड़ी देर में सब कुछ सामान्य। लोग सीट बेल्ट खोलने लगे। बादलों के ऊपर वैसे ही चमकीली धूप थी जैसी कि हम दिल्ली के मई व जून महीने में रोज देखते आए थे। खिड़की से जब नीचे देखा तो लगा कि हम एक ऐसे समुद्र के ऊपर हैं जिसमें पानी नहीं बदल भरे हैं। हम यद्यपि काफी गति से आगे बढ़ रहे थे लेकिन लगता यही था कि हम टीवी के धारावाहिकों देवताओं की तरह बादलों में खड़े हैं। कुछ देर तक बाहर के इस अद्भुत नजारे बाद मैने एक नजर जहाज के अंदर दौड़ाई।
सीट बेल्ट खोलने के बाद अंदर अचानक शोर बढ़ गया था। लोग खिड़कियों से बाहर झांक रहे थे। कुछ लोग बाहर के दृश्य कैमरों में कैद करने में जुट गए। एअर होस्टेज दो ट्रालियों में यात्रियों को खाने का सामान दे रही थीं। लोगों ने सीट के आगे की ट्रे खोलकर खाने पीने में जुट गए। एक क्षण को लगा कि हम राजधानी ट्रेन में सफर कर रहे हैं। हमे भी खाने की ट्रे मिली। उसमें एक मीठा बर्गर, एक पैकिट में कटे हुए कुछ फल तथा गरम गरम उत्पम की तरह का एक अन्य डिश प्लेट में रखी थी। हम भी चटपट खाने में जुट गए। खा-पीकर फ्री हुए तो फिर ध्यान सहयात्रियों की ओर गया। मैने कहानियों में जहाज के अंदर टायलेट होने की बात सुन रखी थी। वैसे मैं टर्मिनल वन-डी पर फ्रेश होकर ही अंदर जहाज पर चढ़ा था लेकिन आसमान में टायलेट भ्रमण के मोह को मैं रोक नहीं पाया। सीट से उठकर टहलता हुआ जहाज के पिछले हिस्से में गया। जहां सीटें खत्म होती हैं वहां दाएं बाएं दो टायलेट बने थे। उसके पीछे केबिन नुमा जगह थी जो देखने में किचन जैसा लगता था। वहां कैटरिंग आदि का सामान भी था। दो एअर होस्टेज वहीं पर कुछ काम करते हुए बतिया रही थीं। जहाज की पिछली कुछ सीटें खाली थीं। चूंकि दोनों बाथरूम में पहले से कोई अंदर घुसा था इसलिए मैं वहीं सीट पर बैठकर इंतजार करने लगा। मुझे लगा कि पास में बैठे दो लोग शायद पहले से ही टायलेट जाने के इंतजार में थे। दोनों विदेशी थे। मैने उनके अंदर जाने तक इंतजार किया। बाद में मैं भी टायलेट गया। और लौटकर अपनी सीट पर बैठ गया।
अब तक दिल्ली से उड़े हुए आधे घंटे से अधिक समय बीत चुका था। अचानक बादलों की नीचे बनी परत कम होने लगी। लोग खिड़कियों से झांकने लगे। हमने भी नीचे देखना शुरु कर दिया। एक मिनट बाद हमें हिमालय रेंज की पहाड़ियों की वे चोटियां दिखने लगीं जिन पर बर्फ जमा थी। अद्भभुत था यह नजारा। प्रकृति का वह रूप जो जमीन पर हमारे लिए सिर्फ कौतुहल होता है वह चालीस हजार फिट की ऊंचाई पर उड़े जहाज से मेरे सामने फैला हुआ था। जो लोग खिड़कियों से दूर बैठे थे वे भी खिड़की के पास आकर यह नजारा देखने के लिए मचलते नजर आए। कुछ लोगों ने थोड़ी देर के लिए आपस में सीटों की अदला बदली भी कर ली। हमारे बगल वाली सीट पर बैठे सौरभ गुप्ता भी बार-बार खिड़की से बाहर प्रकृति को निहारने की कोशिश करते रहे। इस बीच हमने अपना मोबाइल चालूकर कुछ चित्र उतारना शुरु कर दिया। लेकिन कुछ देर में ऐसा करते देख एअर होस्टेज ने हमें मोबाइल बंद करने की रिक्वेस्ट की और हमने मोबाइल आफ कर दिया।
कुछ साथियों ने कहा कि अब हम कुछ ही मिनटों में लेह पहुंचने वाले हैं। हमें भी बाहर के नजारे से लग रहा था कि शायद हम कुछ नीचे आ गए हैं क्योंकि पहाड़ियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगी थीं। हमें एक स्थान पर ऐसे लगा कि पहाड़ियों के बीच एक लंबी से काली लकीर खिंची हुई है। लकीर काफी हद तक एक दम सीधी थी। बाद कुछ हजम नहीं हुई। फिर ध्यान से देखा तो उन लकीरों पर कुछ सफेद सी चीज रेंगती नजर आई। वास्तव में वह कोई सड़क थी जिस पर वाहन चल रहे थे। ज्याद ऊंचाई के कारण बहुत स्पष्ट नहीं था। तभी हमें लगा कि हमारा प्लेन घूम रहा है। नीचे देखा तो माचिस की डिब्बियों जैसी कुछ मीटर में फैली एक बस्ती दिखी। फिर नीचे का नजारा स्पष्ट दिखने लगा। अब हमारा जहाज लेह घाटी में चक्कर लगाकर नीचे आने लगा था। लोगों ने कहा लेह में हम पहुंच गए हैं। इसी बीच सीट बेल्ट बांधने की भी घोषणा हो गई। हम फिर से कौतुहलवश उत्तेजित हो गए। लेह घाटी के सबसे निचले हिस्से में एअरपोर्ट होने के कारण हमारा प्लेन लगातार चक्कर लगा रहा था। हम खिड़की से बाहर लगातार प्लेन के विशाल डैने को निहार रहे थे। लग रहा था जैसे कोई विशाल पक्षी अपने पंख फैलाए धीरे-धीने गोल चक्कर में नीचे जा रहा हो और हम उसकी पीठ पर सवार हों। कई बार तो ऐसा लगता कि पास की पहाड़ियों से जहाज के पंख अब टकराने वाले हैं। फिर हम एक दम सतह पर पहुंचे और जहाज ने रन वे का तल छू लिया। रन ऐसा कि आप दौड़ लगाकर दूसरे सिरे तक पहुंच जाएं। ज्यादा से ज्यादा पांच सौ मीटर चलने के बाद जहाज मुड़कर वापस लौटने लगा और मैदान के एक साईड में पहुंचकर रुक गया। सभी लोग खड़े हो गए। हम भी उनके साथ दरवाजे की ओर बढ़े। दो मिनट में दरवाजा खुला और हम सभी नीचे उतर आए। जहाज से बाहर का नजारा देखने लायक था। ठंडी हवाएं हाफ शर्ट में हमें सिहरा रही थीं। हल्के बादल होने के कारण कभी धूप कभी छांव हो जाती। सामने धूसरित पहाड़ी और पहाड़ी के पीछे ऊंचा विशाल पहाड़ जिसकी चोटियां पर बिखरी वर्फ धूप की किरण पड़ते ही जगमगा उठती। हमारे साथ इसी जहाज से उतरे कुछ लोग इस नजारे को अपने कैमरे में कैद करने के लिए बेताब नजर आए। कभी जहाज को पार्श्व में रखकर तो कभी पहाड़ियों को पीछे कर धड़ाध़ड़ फोटोग्राफी करा रहे थे। इतने में एअरपोर्ट की सुरक्षा से जुड़े कुछ लोगों ने आकर वहां फोटोग्राफी के लिए मना करना शुरु कर दिया। हम तो बस नजरों में ही सब कुछ समाने की कोशिश में जुटे रहे क्योंकि हमारे पास कैमरा नहीं था। मोबाइल के कैमरे से कुछ दृश्य हमने भी शूट कर डाले। थोड़ी देर में एक मिनी बस में बैठकर हम लोग टर्मिनल की ओर रवाना हो गए। हमारे साथ वहां पहुंचे सभी विदेशी यात्रियों को स्वाइन फ्लू बीमारी की जांच करानी अनिवार्य थी जबकि हम लोग अपना सामान लेकर बाहर निकल आए। एअरपोर्ट के बाहर हम लोगों का परंपरागत ढंग से एक सफेद रेशमी दुपट्टा देकर स्वागत किया गया। यह देवों की धरती, हमारे पुरखों की की धरती पर हमारा पहला स्वागत था। इतिहास में हमने पढ़ा था कि इन्ही पर्वतों में बहने वाली सिंधु नदीं के किनारे हमारे हिंदुओं के पूर्वजों ने कभी पहली बस्ती बसायी थी। यह याद कर हम निहाल थे।

क्रमशः जारी

यात्रा की चित्र कथा

चित्र शब्द-एक---दिल्ली के आसमान पर बादलों के पार कुछ ऐसा ही नजारा दिखायी दे रहा था।
चित्र शब्द-दो-हिमालय की वर्फ से ढंकी चोटियां व ग्लेशियर का एक नजारा

चित्र शब्द-तीन-दिल्ली से लेह एअर पोर्ट पर उतरने के बाद प्रकृति का नजारा लेती पत्रकारों की टोली


चित्र शब्द-चार-एअर डेक्कन के इसी जहाज से पहुंचे हम दुनिया की छत पर, लेह हवाई जहाज पर कुछ लोग जहाज के पार्श्व में चित्र खिंचवाते हुए।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

मेरी लद्दाख यात्रा-1


“If I had just one mountain to my name, I will build a small one room shackle on top it. It will have two windows that will open up to the chirping birds, walls painted in hues of a shy smile of an unknown passerby which will be nothing but my imagination, a small wooden desk with few books of unknown authors written in unknown script, a small fire place at a corner facing window that will put to display the utter beauty of a starry sky every night as I gingerly put more pieces of coal into it and the warmth will make me lone for someone and the smoke will fill up the air, I will hum some unknown tunes, and my soliloquy will spell pathos. I won’t be sad but contended. I won’t cry but will shrink my eye muscles to hide a tear. And if I fail to stop it, I will let it trickle down my face slowly as the drop of tear will make a faint mark on my face, I will think of my journey down the mountain.”

अंग्रेजी की यह चंद लाइने मेरे लैपटाप पर सुहैल नाम के उस कश्मीरी नौजवान ने लिखी थी जिसकी आंखों में मैं रोज हजारों सपने घुमड़ते हुए देखता था। सुहैल अकरम राठौर, दिल्ली दूरदर्शन में एंकर व रिपोर्टर हैं। मेरी लद्दाख यात्रा के दौरान लेह के होटल नामग्याल पैलेस में सुहेल मेरे रूम पार्टनर थे। मुश्किल से पच्चीस छब्बीस साल के इस युवक का उत्साह गजब का था। वह जब भी फुरसत मिलती मुझसे लेह व कारगिल के बीच जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का जिक्र जरुर करता। चूंकि वह मूल रूप से कश्मीर का है इसलिए वह एक प्रांत में होने वाले उस भेदभाव को गहरे से जान लेना चाहता था। वह अक्सर लद्दाख की एकता में धार्मिक आधार पर भेदभाव को लेकर चिंता भी जताता था। सुहेल के बारे में मैं बाद में विस्तार से चर्चा करूंगा यहां केवल यह कहना चाहता हूं कि लद्दाख की पहाडियों को देखकर जैसा सुहैल के मन में कुछ चल रहा था वैसा ही शायद हम भी हर समय महसूस करते रहे। हम दोनो पहली बार दुनिया की छत पर पहुंचे थे।
लद्दाख की यह यात्रा महज संयोगवश हुई। ठीक से तिथि तो नहीं याद है लेकिन मई के महीने में Text-100 नाम की एक जनसंपर्क कंपनी ने मेल पर सूचित किया की दिल्ली से पत्रकारों का एक दल लद्दाख ले जाया जा रहा है। वहां किसी बौद्ध धर्मगुरु का एक कार्यक्रम है। उसमें सभी को शामिल होना है। क्या आप चलेंगे। चूंकि पीआर कंपनियों से अक्सर इस तरह के निमंत्रण मिलते रहते हैं इसीलिए हमने कह दिया कि ठीक है हम चले चलेंगे। जून महीने में फिर एक मेल Text-100 की ओर से आया जिसमें बताया गया कि वहां की यात्रा लगभग सात दिन की होगी। और साथ ही हवाई टिकट के प्रबंध के लिए कुछ आई कार्ड आदि की काफी मेल से भेजने को कहा गया। मुझे लगा कि यह यात्रा तो शायद करनी होगी। इस बीच हमने अपने अखबार के प्रबंधन से लद्दाख जाने की अनुमति भी ले ली। अभी तक मैने घर पर लद्दाख जाने की संभावना के बारे में जिक्र नहीं किया था क्योंकि मैं जानता था कि अखबार के धंधे में अंतिम समय में तमाम परिस्थितियां ऐसे हो जाती है कि कार्यक्रम बदलना पड़ता है। जब एक हफ्ते पहले यह तय हो गया कि तीस जून को दिल्ली के पत्रकारों का दल सुबह एअरपोर्ट से रवाना होगा। तब मैने घर पर बताया कि मुझे लद्दाख की एक पत्रकारों की टीम में जाना है। जाहिर है अंतिम क्षण में इस सूचना से श्रीमती जी ने अपनी कड़ी नाराजगी जाहिर की। उनतीस जून को नौ बजे तक दफ्तर में काम करने के बाद मैं रात जब घर पहुंचा तो आनन-फानन में बैग में सारा सामान रखा। घर में खटपट के चलते काफी तनावपूर्ण माहौल में रात बारह बजे बैग तैयार हुआ। अभी मैं विस्तर पर सोया ही था कि ढाई बजे यात्रा का आयोजन करने वाली कंपनी से फोन मिला की आपके घर के लिए टैक्सी रवाना कर दी गई है। आप आधे घंटे में तैयार रहिएगा। इसी टैक्सी से किसी अन्य पत्रकार को भी लेना था। जिससे एअरपोर्ट पहुंचने पर विलंब हो सकता है। मैं तीन बजे तक तैयार हो गया। और ठीक तीन बजे ही टैक्सी भी पहुंच गई। इस तरह बिना नींद पूरी किए मैं लद्दाख की यात्रा के लिए घर से निकल पड़ा। पत्नी को मेरी इस अचानक लद्दाख यात्रा से नाराजगी थी इसीलिए घर से निकलते समय वह गेट तक छोड़ने भी नहीं आईं।
घर से निकलते समय मैं अजीब मनः स्थिति में था। आपको जानकर ताज्जुब हो सकताहै कि ४४ वर्ष का हो गया हूं तथा बीस साल से पत्रकारिता के पेशे में हूं लेकिन आज तक मैं हवाई सफर नहीं किया था। पहली हवाई यात्रा करने वाला था जिसका मुझे बहुत एक्साइटमेंट था। लेकिन घर के माहौल को लेकर ठीक उसी क्षण में तनाव में भी था। फिलहाल मैं घर से निकलते ही पहले एटीएम पर गया, कुछ पैसे निकाले और टैक्सी लेकर वीक के उस फोटोग्राफर के घर की ओर रवाना हो गए जो मेरे साथ इसी टैक्सी से एअरपोर्ट जाने वाला था। लगभग साढ़े चार बजे भोर में मैं पालम के उसी वन-डी टर्मिनल पर खड़ा था जिसके बारे में एक दर्जन खबरें अपने अखबार में छाप चुका था। मजे की बात यह है कि मैं खुद इस टर्मिनल को भी पहली बार ही देख रहा था। इससे पहले अपने रिपोर्टर से ही इसकी तारीफ सुनता रहता था।
Text-100 कंपनी ने मुझे दो दिन पहले एअर टिकट बुकिंग की कापी मेल से भेज रखी थी जिसका मैने दफ्तर में प्रिंट भी निकाल लिया था लेकिन यात्रा के समय उस प्रिंट की कोई उपयोगिता होगी यह हमें नहीं मालुम था। लिहाजा हम वह प्रिंट अपने साथ लाए भी नहीं थे। टर्मिनल पर साथी फोटोग्राफर ने बताया टिकट बुकिंग का वह कागज दिखाये बिना सिक्योरिटी वाले अंदर नहीं जाने देंगे। मैने फिर Text-100 के उन लोगों को फोन मिलाया जो हमारे साथ यात्रा करने वाले थे। जी अमित नाम था उसका। अमित ने बताया कि वह लोग बीस मिनट में पहुंचने वाले हैं। मैं आधे घंटे तक टर्मिनल के बाहर ही खड़ा रहकर बाकी लोगों के आने का इंतजार करता रहा। साथ में वीक मैगजीन के फोटोग्राफर मि. जैन भी रुके रहे।
टर्मिनल वन डी के अंदर की दुनिया से मैं पूरी तरह अनजान था। जैसे ही Text-100 की टीम के कुछ सदस्य पहुंचे उनसे टिकट बुकिंग का प्रिंट लेकर हम लोग अंदर चले गए। वहां पर फिर नजर थी कि दूसरे साथी क्या कर रहे हैं। सबसे पहले भीड़ से बचने के लिए हम लोग सामान चेकिंग कराकर टिकट के लिए लाइन में लग गए। बताया गया कि मोबाइल व लैपटाप आप अपने साथ रख सकते हैं। किंगफिशर एअरलाइंस से हम लोगों को जाना था। वहां काउंटर पर सामान जमा करने के बाद हम लोग सिक्योरिटी चेक के लिए। अंदर चले गए। यहां पर देखा कि मोबाइल से लेकर हर छोटा मोटा सामान एक्सरे मशीन से गुजारा जा रहा है। हमने भी अपना लैपटाप व उसी बैग में मोबाइल रखकर मशीन के ट्रे में रख दिया। दूसरे गेट से एक-एक कर लोगों को अंदर बुलाया जा रहा था। वहां पर खड़ा सिक्यरिटी वाला फिर से गहन तलाशी ले रहा था। उस तलाशी के बाद हमें अपना लैपटाप व मोबाइल फिर से मिल गया। उसके बाद हम अंदर की लाबी में पहुंच गए जहां से रन-वे पर खड़े हवाई जहाजों का नजारा देखने लायक था। अब तक बाहर काफी उजाला हो चुका था। हमारी फ्लाइट छह बजकर दस मिनट पर थी। अभी सिर्फ पांच सवा पांच ही बज रहे थे। हमारे साथ लद्दाख जाने वाले दस बारह लोग अंदर आ चुके थे। कुछ और लोग आने बाकी थे। हम लोग आपस में परिचय करने में जुट गए। मैं तो यात्रा में साथ चलने वाले एक भी व्यक्ति को पहले से नहीं जानता था लेकिन कुछ लोग आपस में पहले से परिचित थे। मैं वैसे भी लोगों से बातचीत करने के बजाय लोगों को देखने व समझने में ज्यादा मशगूल था क्योंकि मेरे लिए वहां काफी कुछ पहली बार था। मैं उन्हें जान लेना चाहता था। मैं किसी हद तक इस बात के लिए सावधान मुद्रा में भी था कि कहीं से सिस्टम के लिए नौसिखुआ नजर न आऊं। मैं लोगों के पहल का इंतजार करता और उन्हें देखकर ही मैं भी फालो करता रहा। थोड़ी देर में अनाउंस होने लगा कि, लेह के लिए किंगफिशर की फ्लाइट IT-3341 उड़ान के लिए तैयार है। आप लोग गेट नम्बर ...पर पहुंचे। साथी लोगो के साथ मैं उठ खड़ा हुआ। और उक्त गेट पर टिकट दिखाने के साथ ही बाहर खड़ी किंगफिशर की उस बस में सवार हो गया जो यात्रियों को हवाई जहाज तक ले जाने के लिए खड़ी थी। अभी तक मैं बाहर के मौसम से अनभिज्ञ वन-डी टर्मिनल की भव्यता में खोया हुआ था। बस की खिड़की से बाहर का नजारा लिया तो पता चला कि पिछले एक हफ्ते से तपती दिल्ली में बारिश शुरु हो चुकी थी। आसमान में लंबे समय बाद काले घने बादल छाए हुए थे। दिल्ली वालों के लिए यह सुबह काफी सुकून भरी रही होगी। हम तो लद्दाख रवाना हो रहे थे। फिलहाल कुछ ही देर में हम बस से उस जहाज के सामने पहुंच गए जिस पर मैं पहली हवाई यात्रा करने वाला था।