मंगलवार, 4 अगस्त 2009

यात्रा की चित्रकथा

चित्र कथा --कारू कस्बे के निकट सिंधु नदी के तट पर खड़ा लेखक। ढलते सूरज की कमजोर किरणें पूरे वातावरण को रहस्यमयी बना देती हैं।


चित्र कथा--स्कार्पियों गाड़ियों का काफिला जिसमें हम भी सवार थे।


चित्र कथा--लद्दाख के रहस्यमय पहाड़ जो किसी को भी बरबस आकर्षित कर लेते हैं।


चित्र कथा--लेह स्थित होटल नामग्याल पैलेस, जहां छह दिन ठहरी थी हमारी टीम।

मेरी लद्दाख यात्रा-3

(परंपरागत वेशभूषा में एक लद्दाखी महिला )

जो एक बात हमने दुनिया की छत पर उतरते ही सबसे पहले महसूस की वह तो मैं बताना ही भूल गया। शायद दिल्ली की गर्मी से इस शीतल व शुद्ध बयार वाले मौसम ने हमें अलग से इस ओर ध्यान नहीं जाने दिया। कुछ देर बाद ऐसा लगा जैसे पूरे वातावरण में एक खास तरह की खुशबू है। यह खुशबू किसी फूल की नहीं बल्कि वहां की मिट्टी से आ रही थी। यदि आप कभी गांव में रहे हों तो आप समझ सकते हैं कि जब तपती गरमी के बाद पहली बारिश होती है तो खेतों की मिट्टी से जैसी सोंधी-सोंधी महक आती है कुछ वैसी ही महक लद्दाख की फिजा में भी महसूस हो रही थी। एक बार जब इस खुशबू की ओर हमारा ध्यान चला गया तो पूरे समय हमें दूसरे लोगों से भी इसकी पुष्टि करते रहे कि क्या उन्हें भी वातावरण में किसी खास महक का अहसास हो रहा है। फिलहाल एअरपोर्ट के बाहर दिल्ली से पहुंची टीम के लिए आई टैक्सियों में हम सवार हो गए। यहां टैक्सियों में सर्वाधिक स्कार्पियो गाडियां ही दिख रही थीं। हम लोगों के लिए बी पांच स्कार्पियों गाड़ियों का ही इंतजाम किया गया था। लेह शहर के शायद सबसे निचले स्थान पर एअरपोर्ट है। हम वहां से निकलने के पांच मिनट के अंदर ही एक होटल परिसर में पहुंच गए। होटल की बिल्डिंग पर बड़े अक्षरों में लिखा था, होटल नामग्याल पैलेस। बाद में किसी ने बताया कि नामग्याल यहां के किसी पुराने शासक का नाम था जिसने इस शहर को कभी ईशा पूर्व बसाया था। होटल की लाबी में पहुंचने पर पता चला कि Text-100 टीम के कुछ सदस्य व कुछ पत्रकार हम लोगों से एक दिन पहले ही पहुंच चुके थे। अभी सुबह के नौ ही बजे थे। हमें यहां बताया गया कि हम वहां होटल के डायनिंग हाल में नाश्ता कर लें। चाय नाश्ते के बीच ही हमें हमारे कमरे बता दिए गए। कुछ लोगों को पास के ही दूसरे होटल में जाना पड़ा क्योंकि वहां कमरे कम पड़ रहे थे। Text-100 टीम के एकमात्र मेल मेम्बर अमित वर्मा ने बताया कि मुझे कमरा संख्या १०२ में जाना है। जहां एक दिन पहले ही पहुंच चुके दूरदर्शन के रिपोर्टर सुहेल ठहरे हुए हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि हम कोशिश करें कि शाम तक होटल के कमरे में ही आराम करें। क्योंकि आक्सीजन की कमी के चलते आज हमें ज्यादा चलना फिरना नहीं चाहिए। यद्यपि हमें कोई खास परेशानी नहीं हो रही थी लेकिन शरीर में सुस्ती सी छाना शुरु हो गई थी। बार-बार लोग एक दूसरे से तबीयत पूछ रहे थे। कुछ लोग दवाएं आदि भी प्रिकाशन के रुप में खा रहे थे। मैं चाय नाश्ता करने के बाद अपने कमरे में जाने के लिए जब पहली मंजिल की सीढ़ियां चढ़ रहा था तो हमें लगा जैसे हम भारी बोझा उठाये चल रहे हों। लगभग बीस स्टेप चलने के बाद सांस फूलने लगी। इसके साथ ही मुझे प्लेन में सौरभ गुप्ता की कही बात याद आने लगी। मैं सीधा कमरे में गया। वहां मेरे कमरे में पहले से ठहरे सुहेल कहीं गए थे। मैं कपड़े बदले और दिन की गुलाबी ठंड़ के बीच रजाई में घुसकर लेट गया। नींद कब आई पता ही नहीं चला। अचानक नींद खुली तो होटल की घंटी बज रही थी। फोन उठाया तो Text-100 टीम की ओर से मेरा पहले स्वास्थ्य पूछा गया। मुझे लगा कि ठीक ही हूं। फिर कहा गया कि मैं नीचे डायनिंग हाल में आकर लंच कर लूं। मैं थोड़ी देर में विस्तर से उठा तो लगा कि कमजोरी सी लग रही है। फिर मे मैं नीचे दूसरे साथियों का हाल जानने की गरज से नीचे पहुंच गया। पता चला कि कुछ लोग तो बीमार से हो गए हैं। कुछ लोग कमजोरी महसूस कर रहे थे लेकिन दवा के बूते वे अभी तक ठीक-ठाक थे। लंच कर मैं Text-100 की टीम से वहीं लाबी में बैठकर अगले दिन के प्रोग्राम पर बात करने लगा। सबसे पहले मैंने यह जानने की कोशिश की कि वह जगह कहां जहां पर कल हम लोगों को जाना है । वहांक्या प्रोग्राम है। हमें बताया गया कि सुबह सात साढ़े सात बजे हम लोगों को होटल छोड़ देना है। हमें हेमिस गोम्पा जाना होगा। वहीं पर हिज हाइनेस (HH) ग्यालवांग द्रुक्पा की चार सौ किमी. लंबी पदयात्रा का समापन होगा। हमें उसमें शिरकत करना है। आगे का कार्यक्रम हमें वहीं पता चलेगा।
फिर कब शाम हुई, कब व कैसे रात का खाना खाया पता ही नहीं चला। क्योंकि शाम तक बदले माहौल का पूरा असर हम पर छाने लगा था। शरीर शिथिल से शिथिलतर होने लगा था। इस बीच हमने दवा की एक गोली भी खायी। देर रात हमारे रूम पार्टनर कब आए यह भी मुझे ठीक से याद नहीं। अगले दिन सुबह छह बजे फिर टेलीफोन कर हमें जगा दिया गया और कहा गया कि तैयार होकर नीचे आ जाएं। नाश्ता के बाद हमें हेमिस के लिए रवाना होना था। वैसे भी सुबह उठने पर लगा कि तबीयत भी कुछ बेहतर है। हमारी टीम चाय नाश्ता के बाद लगभग आठ बजे होटल से हेमिस के लिए निकल पड़ी। हमारी नजर दुनिया में सबसे ऊंचाई पर बसे इस शहर की खूबियों को देखने के लिए इधर-उधर भटकने लगी। अब तक जो हमने महसूस किया वहां पर हमें कहीं पक्षी नहीं दिखायी दिए। इसके अलावा वहां पर आबादी वाले इलाके में वनस्पतियों की भी कुल दो ही प्रजातियां दिख रही थीं। जिनमें से एक पापुलर का पेड़ तथा दूसरा एक झाड़ी नुमा पेड ही बहुतायत से लोगों ने घरों व सड़क के किनारे लगा रखे थे। लेह से हेमिस की दूरी लगभग पैंतालिस किमी है। जिस मार्ग से हम जा रहे थे लोगों ने बताया कि वह मनाली जाने वाली सड़क है। शहर से पांच छह किमी चलने के बाद एक तरह पहाड़ियां तो दूसरी तरफ सिंधु नदी बहती है। बीच बीच में पहाड़ों तथा सड़क के बीच लंबा मैदान भी दिखता है किंतु पूरी तरह से बंजर। नदीं के पार दूसरी ओर भी बड़े मैदान हैं लेकिन वे भी बंजर। इन मैदानों में एक भी पेड़ पौधे नहीं है। हां सड़क व सिंधु नदी के बीच की जमीन पर कई जगह उपजाऊ जमीन है। जिस पर लोगों ने न केवल फसले उगा रखी थी बल्कि वहां बड़ी संख्या में पेड़ भी दिख रहे थे। जिनमें ज्यादातर पापुलर के ही पेड़ थे। जुलाई के मौसम में यहां गेंहूं के हरे भरे खेत व फूली हुई सरसो देखना अदभुत लग रहा था। रास्ते में ड्राइवर ने पहाड़ पर बाई तरफ चोटी पर बने एक भवन की ओर इशारा करते हुए कहा कि यह शै पैलेस है। सड़क से दो सौ फिट से भी अधिक ऊंचाई पर उक्त पैलेस को देखकर मन में कौतुहल उठा लेकिन हमारी गाड़ी आगे बढ़ती गई। सड़क के किनारे कुछ गांव थे। गांव क्या थे एक या दो कमरों के कच्चे मकानुमा भवनों को देखकर अजीब सा लगता था। वास्तव में वे स्थानीय तौर पर बनाई गई ऐसी कच्ची ईंटों के मकान थे जो बारिश से सुरक्षित थे। जो लोग थोड़ा संपन्न थे उनके घरों के बाहर दीवार पर लकड़ी की नक्काशी भी दिख जाती थी। लगभग पौन घंटे बाद एक छोटी सी बाजार पहुंचकर हमारी गाड़ी धीमी होने लगी। हमें बताया गया कि उस जगह का नाम कारू है। यहां से हमें सिंधु नदी पार करके उसके बांए किनारे पर जाना था। कारू सिंधु नदी के बिल्कुल दाहिने किनारे पर है जबकि ठीक उसके सामने वाएं किनारे पर लगभग दो किमी या इससे भी अधिक दूरी पर सिंधु नदी के बायी ओर पहाड़ियों के पीछे हेमिस गोम्पा है। हमारा काफिला सिंधु नदी पार करते ही थोड़ी उंचाई पर सड़क के किनारे रुक गया। पता चला कि सामने से वह यात्रा आ रही जिसके समापन कार्यक्रम में हमें आज (1जुलाई 2009) शामिल होना था।