गुरुवार, 16 जुलाई 2009

मेरी लद्दाख यात्रा-2

पालम एअरपोर्ट पर मैं एयर डेक्कन के उस विमान को बड़ी हसरत भरी नजर से देख रहा था। जैसे ही बस से उतरे मेरे साथ के लोग विमान की ओर बढ़े मैं भी अपना वैग लेकर उनके पीछे चल दिया। विमान के द्वार से अंदर घुसते समय लाल रंग के पश्चिमी पहनावे वाली दो लड़कियों ने हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए हमारा वेलकम किया। मेरे लिए यह सब नया अनुभव था। मैने भी उन्हें धन्यवाद कहा लेकिन मैं थोड़ा आगे आकर पीछे मुड़ा ताकि उन बालाओं के स्वागत पर दूसरे साथियों के प्रतिक्रिया को देख सकूं। उनमें से कई केवल उनके अभिवादन पर केवल सिर हिला रहे थे जबकि कुछ को तो देखकर लगा जैसे वे प्रयासपूर्वक उन्हें अनदेखा कर रहे थे। मैं थोड़ा आगे बढ़ा। कुछ लोग पहले से जहाज के अंदर पहुंचकर अपनी सीट पर बैठ गए थे। मुझे नहीं मालुम था कि मुझे किस सीट पर बैठना है। किंग फिशर के टिकट पर कई तरह के नम्बर थे लेकिन उनमें से कौन सा सीट नम्बर है हमें यह नहीं मालुम था। सामने से आ रही एक अन्य एअर होस्ट से मैने अपने बैठने की जगह पूंछी साथ ही फटा हुआ टिकट का कूपन उसकी ओर बढ़ा दिया। लड़की ने पूरी तत्परता व प्रोफेशन तरीके से मुझे मेरी सीट पर पहुंचा दिया। जहाज के अंदर यात्रियों के लिए लगभग सवा सौ सीट थी मेरी सीट जहा के मध्य से थोड़ा पीछे दाहिनी ओर विंडो के साथ थी। मैं जाकर अपनी सीट पर बैठ गया। अभी मैं जहाज के अंदर का जायजा ही ले रहा था कि एक और सज्जन आकर मेरी बगल में बैठ गए। थोड़ी देर हम दोनों चुप रहे लेकिन मुझे लगा कि वे हमारे साथ Text-100 की ही टीम में थे। मैने उनसे कंफर्म किया तो उन्होंने सहमति में सिर हिला दिया। फिर मेरा उनसे परिचय हुआ। मेरे सहयात्री थे सौरभ गुप्ता। सौरभ हिंदुस्तान टाइम्स, चंडीगढ़ से इस यात्रा में शामिल होने के लिए आए थे। सौरभ वैसे तो कम बोलने वाले इंसान लगे लेकिन लद्दाख यात्रा को लेकर वे भी मेरी तरह उत्सुक नजर आए। हम लोगों के जहाज में सवार होने के बाद बीस मिनट तक जहा रुका रहा। शायद कोई पैसेंजर पीछे छूट गया था। इस बीच सौरभ ने बताया कि हम लोगों को लद्दाख पहुंचते ही होटल में जाकर छह सात घंटे आराम करना होगा। मैने सोचा कि एक घंटे की फ्लाइट के बाद छह साथ घंटे क्यों आराम करना होगा। जब मै प्रश्नवाचक निगाहों से सौरभ की ओर देखा तो वे बोले कि लद्दाख में आक्सीजन यहां की तुलना में काफी कम है। इसिलए वहां हमें चक्कर आदि आने लगेगा। वहां के माहौल से तालमेल बिठाने में एक दिन निकल जाएगा। मैं मन ही मन उन पर हंसा कि क्या फालतू तर्क दे रहे हैं। लेकिन सौरभ यह सारी हिदायतें मुझे काफी कांफीडेंस से दे रहे थे। कि वहां क्या-क्या परेशानी हो सकती थी लेकिन हम तो जहाज में पहली बार उड़कर दुनिया की छत पर पहुंचने के सपने में ऐसे खोए थे कि उनकी बातों को मन ही मन हंसी में उडा दिया।
तीस जुलाई सुबह सवा सात बजे हमारा विमान रन वे की ओर चला। विमान यद्यपि अभी जमीन पर ही चल रहा था लेकिन हम सातवें आसमान पर थे। खिड़की के बाहर की दुनिया कुछ अजीब लग रही थी। जिन रास्तों पर विमान रन वे की ओर जा रहा था उन्ही पर जीप, बस व ट्राली लगे ट्रैक्टर भी इधर उधर दौड़ते नजर आ रहे थे। थोड़ी देर में हम टर्मिनल वन-डी से दूर रन-वे के करीब थे। इसी बीच अनाउंस होता है कि सभी यात्री ध्यान दें। जहाज के बीच के रास्ते में समान दूरी पर तीन एअर होस्टेज खड़ी थीं। वे एनाउंस मेंट के जरिए सेफ्टी व अन्य जानकारियों को प्रदर्शन कर साथ-साथ बताती जा रही थीं। जैसे कि यात्री कैसे सीट बेल्ट बांधे या खोलें। इस घोषणा के साथ ही एअर होस्टेज डमी सीट बेल्ट को खोलकर बांधने की तरकीब को दिखाती। वे यह भी बताती कि ऊंचाई पर जहाज में आक्सीन माक्स कैसे लगाएं अथवा इमरजेंसी गेट तक कैसे पहुंचे आदि। हमें यह किसी नाटक के दृश्य जैसा लग रहा था, जिसमें मंच पर एक्टिंग करने वाला पात्र केवल मुंह चलाता जबकि संवाद पर्दे के पीछे से बोला जा रहा होता है।
अचानक जहाज रुक गया। खिड़की से बाहर देखा तो दूसरा जहाज तेजी से रन-वे पर भाग रहा था और देखते ही देखते आसमान में उड़ गया। हम लोग भी सीट बेल्ट बांधकर उड़ने का इंतजार कर रहे थे। बीस पच्चीस सेकंड में ही हमारा जहाज भी रन वे पर दौड़ने लगा। अचानक लगा कि जहाज में दो इंजन चालू हो गए। शोर बढ़ गया और जहाज की दौड़ने की गति भी बढ़ गई। हम दम साधे खिड़की से बाहर का नजारा लेते रहे। हल्का सा एक झटका लगा और हम जमीन से ऊपर उड़ गए। इस बीच जहाज के डैने थोड़े पीछे की ओर झुका दिए गए थे। हम जमीन से ऊपर उठते जा रहे थे। नीचे के घर व खेत छोटे होने लगे थे। खिड़की पर जमीं बारिश की बूंदे फुर्र हो चुकी थीं। हमारा जहाज हल्के से घूम रहा था दिल्ली का एक विहंगम दृश्य सामने था।

लेकिन यह नजारा देर तक न रहा। अचानक लगा हम बादलों के बीच में हैं। जहाज के चारो ओर बादल और सिर्फ बादल दिखायी दे रहे थे। नीचे का दृश्य दिखना बंद हो गया। एक मिनट तक यह स्थिति बनी रही और उसके बाद हम बादलों के पार आसमान में थे। हां इस बीच दो बार ऐसा लगा जैसे कि जहाज कुछ छड़ के लिए नीचे गिर रहा हो। उस पल लगा कि पेट की अंतड़िया ऊपर सरक रही हैं। एक हल्की झुरझुरी सी हुई और फिर थोड़ी देर में सब कुछ सामान्य। लोग सीट बेल्ट खोलने लगे। बादलों के ऊपर वैसे ही चमकीली धूप थी जैसी कि हम दिल्ली के मई व जून महीने में रोज देखते आए थे। खिड़की से जब नीचे देखा तो लगा कि हम एक ऐसे समुद्र के ऊपर हैं जिसमें पानी नहीं बदल भरे हैं। हम यद्यपि काफी गति से आगे बढ़ रहे थे लेकिन लगता यही था कि हम टीवी के धारावाहिकों देवताओं की तरह बादलों में खड़े हैं। कुछ देर तक बाहर के इस अद्भुत नजारे बाद मैने एक नजर जहाज के अंदर दौड़ाई।
सीट बेल्ट खोलने के बाद अंदर अचानक शोर बढ़ गया था। लोग खिड़कियों से बाहर झांक रहे थे। कुछ लोग बाहर के दृश्य कैमरों में कैद करने में जुट गए। एअर होस्टेज दो ट्रालियों में यात्रियों को खाने का सामान दे रही थीं। लोगों ने सीट के आगे की ट्रे खोलकर खाने पीने में जुट गए। एक क्षण को लगा कि हम राजधानी ट्रेन में सफर कर रहे हैं। हमे भी खाने की ट्रे मिली। उसमें एक मीठा बर्गर, एक पैकिट में कटे हुए कुछ फल तथा गरम गरम उत्पम की तरह का एक अन्य डिश प्लेट में रखी थी। हम भी चटपट खाने में जुट गए। खा-पीकर फ्री हुए तो फिर ध्यान सहयात्रियों की ओर गया। मैने कहानियों में जहाज के अंदर टायलेट होने की बात सुन रखी थी। वैसे मैं टर्मिनल वन-डी पर फ्रेश होकर ही अंदर जहाज पर चढ़ा था लेकिन आसमान में टायलेट भ्रमण के मोह को मैं रोक नहीं पाया। सीट से उठकर टहलता हुआ जहाज के पिछले हिस्से में गया। जहां सीटें खत्म होती हैं वहां दाएं बाएं दो टायलेट बने थे। उसके पीछे केबिन नुमा जगह थी जो देखने में किचन जैसा लगता था। वहां कैटरिंग आदि का सामान भी था। दो एअर होस्टेज वहीं पर कुछ काम करते हुए बतिया रही थीं। जहाज की पिछली कुछ सीटें खाली थीं। चूंकि दोनों बाथरूम में पहले से कोई अंदर घुसा था इसलिए मैं वहीं सीट पर बैठकर इंतजार करने लगा। मुझे लगा कि पास में बैठे दो लोग शायद पहले से ही टायलेट जाने के इंतजार में थे। दोनों विदेशी थे। मैने उनके अंदर जाने तक इंतजार किया। बाद में मैं भी टायलेट गया। और लौटकर अपनी सीट पर बैठ गया।
अब तक दिल्ली से उड़े हुए आधे घंटे से अधिक समय बीत चुका था। अचानक बादलों की नीचे बनी परत कम होने लगी। लोग खिड़कियों से झांकने लगे। हमने भी नीचे देखना शुरु कर दिया। एक मिनट बाद हमें हिमालय रेंज की पहाड़ियों की वे चोटियां दिखने लगीं जिन पर बर्फ जमा थी। अद्भभुत था यह नजारा। प्रकृति का वह रूप जो जमीन पर हमारे लिए सिर्फ कौतुहल होता है वह चालीस हजार फिट की ऊंचाई पर उड़े जहाज से मेरे सामने फैला हुआ था। जो लोग खिड़कियों से दूर बैठे थे वे भी खिड़की के पास आकर यह नजारा देखने के लिए मचलते नजर आए। कुछ लोगों ने थोड़ी देर के लिए आपस में सीटों की अदला बदली भी कर ली। हमारे बगल वाली सीट पर बैठे सौरभ गुप्ता भी बार-बार खिड़की से बाहर प्रकृति को निहारने की कोशिश करते रहे। इस बीच हमने अपना मोबाइल चालूकर कुछ चित्र उतारना शुरु कर दिया। लेकिन कुछ देर में ऐसा करते देख एअर होस्टेज ने हमें मोबाइल बंद करने की रिक्वेस्ट की और हमने मोबाइल आफ कर दिया।
कुछ साथियों ने कहा कि अब हम कुछ ही मिनटों में लेह पहुंचने वाले हैं। हमें भी बाहर के नजारे से लग रहा था कि शायद हम कुछ नीचे आ गए हैं क्योंकि पहाड़ियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगी थीं। हमें एक स्थान पर ऐसे लगा कि पहाड़ियों के बीच एक लंबी से काली लकीर खिंची हुई है। लकीर काफी हद तक एक दम सीधी थी। बाद कुछ हजम नहीं हुई। फिर ध्यान से देखा तो उन लकीरों पर कुछ सफेद सी चीज रेंगती नजर आई। वास्तव में वह कोई सड़क थी जिस पर वाहन चल रहे थे। ज्याद ऊंचाई के कारण बहुत स्पष्ट नहीं था। तभी हमें लगा कि हमारा प्लेन घूम रहा है। नीचे देखा तो माचिस की डिब्बियों जैसी कुछ मीटर में फैली एक बस्ती दिखी। फिर नीचे का नजारा स्पष्ट दिखने लगा। अब हमारा जहाज लेह घाटी में चक्कर लगाकर नीचे आने लगा था। लोगों ने कहा लेह में हम पहुंच गए हैं। इसी बीच सीट बेल्ट बांधने की भी घोषणा हो गई। हम फिर से कौतुहलवश उत्तेजित हो गए। लेह घाटी के सबसे निचले हिस्से में एअरपोर्ट होने के कारण हमारा प्लेन लगातार चक्कर लगा रहा था। हम खिड़की से बाहर लगातार प्लेन के विशाल डैने को निहार रहे थे। लग रहा था जैसे कोई विशाल पक्षी अपने पंख फैलाए धीरे-धीने गोल चक्कर में नीचे जा रहा हो और हम उसकी पीठ पर सवार हों। कई बार तो ऐसा लगता कि पास की पहाड़ियों से जहाज के पंख अब टकराने वाले हैं। फिर हम एक दम सतह पर पहुंचे और जहाज ने रन वे का तल छू लिया। रन ऐसा कि आप दौड़ लगाकर दूसरे सिरे तक पहुंच जाएं। ज्यादा से ज्यादा पांच सौ मीटर चलने के बाद जहाज मुड़कर वापस लौटने लगा और मैदान के एक साईड में पहुंचकर रुक गया। सभी लोग खड़े हो गए। हम भी उनके साथ दरवाजे की ओर बढ़े। दो मिनट में दरवाजा खुला और हम सभी नीचे उतर आए। जहाज से बाहर का नजारा देखने लायक था। ठंडी हवाएं हाफ शर्ट में हमें सिहरा रही थीं। हल्के बादल होने के कारण कभी धूप कभी छांव हो जाती। सामने धूसरित पहाड़ी और पहाड़ी के पीछे ऊंचा विशाल पहाड़ जिसकी चोटियां पर बिखरी वर्फ धूप की किरण पड़ते ही जगमगा उठती। हमारे साथ इसी जहाज से उतरे कुछ लोग इस नजारे को अपने कैमरे में कैद करने के लिए बेताब नजर आए। कभी जहाज को पार्श्व में रखकर तो कभी पहाड़ियों को पीछे कर धड़ाध़ड़ फोटोग्राफी करा रहे थे। इतने में एअरपोर्ट की सुरक्षा से जुड़े कुछ लोगों ने आकर वहां फोटोग्राफी के लिए मना करना शुरु कर दिया। हम तो बस नजरों में ही सब कुछ समाने की कोशिश में जुटे रहे क्योंकि हमारे पास कैमरा नहीं था। मोबाइल के कैमरे से कुछ दृश्य हमने भी शूट कर डाले। थोड़ी देर में एक मिनी बस में बैठकर हम लोग टर्मिनल की ओर रवाना हो गए। हमारे साथ वहां पहुंचे सभी विदेशी यात्रियों को स्वाइन फ्लू बीमारी की जांच करानी अनिवार्य थी जबकि हम लोग अपना सामान लेकर बाहर निकल आए। एअरपोर्ट के बाहर हम लोगों का परंपरागत ढंग से एक सफेद रेशमी दुपट्टा देकर स्वागत किया गया। यह देवों की धरती, हमारे पुरखों की की धरती पर हमारा पहला स्वागत था। इतिहास में हमने पढ़ा था कि इन्ही पर्वतों में बहने वाली सिंधु नदीं के किनारे हमारे हिंदुओं के पूर्वजों ने कभी पहली बस्ती बसायी थी। यह याद कर हम निहाल थे।

क्रमशः जारी

1 टिप्पणी:

Ashutosh jha ने कहा…

नमस्ते सर, आपके यात्रा वृतांत को पढ़कर लगा मानों लेह की हवाई यात्रा आपकी जगह मैं स्वंय कर रहा हूं। लेिकन मेरी जिज्ञासा एयरपोट से बाहर निकल लेह को और करीब से जानने की बढ़ गई है। मुझे मेरी लद्दाख यात्रा-३ का बेसबऱी से इंतजार रहेगा।
- आशुतोष